
जब भी किसी युवा जोड़े की शादी होती है तो उनकी आंखों में कितने अरमान होते है!जीवन की वास्तविकताओं से उनका पहला सामना तब होता है जब घर में नया मेहमान एक छोटा शिशु आता है!उनके लिए ये कोई मायना नहीं रखता की वह लड़का है या लड़की?वे उसे प्यार करते नही थकते....लेकिन यहीं से सब कुछ बदलना शुरू हो जाता है!यदि शिशु लड़की है तो अचानक बहुत से बुद्धिजीवी आ धमकते है जो माता को बार बार ये अहसास कराते है की ये लड़की है ..ध्यान रखो...!अब माता .पिता को ये लोग गाहे बगाहे ये टेंशन देते रहते है...लड़की को ज्यादा सर न चढाओ,इसके कपडों पर ध्यान दो,आख़िर ये लड़की है,ज्यादा मत .पढाओ......आदि..आदि...!सबसे ज्यादा समस्या तो .तब...खड़ी होती है..जब कोई महिला कार्यक्रम हो!यहाँ तो लड़की के माता पिता को इस तरह से ..दबाया....जाता है जैसे उन्होंने लड़का पैदा ना करके कितनी बड़ी भूल की हो?लड़कियां हमारी शान है..वो वे सब काम करके दिखा रही है,जिन पर कभी पुरुषों का आधिपत्य था....!बोर्ड एक्साम में लड़कियां हमेशा आगे रहती है..इसकी मिसाल के तौर पर बहुत लम्बी लिस्ट है..!बुढापे में जब माँ बाप को सब छोड़ जाते है...जब सब लड़के मिल कर भी उन्हें pआल नहीं सकते..तब लडकियां पराया धन होते हुए भी माँ बाप से जुड़ी रहती और उन्हें खुशी देने का भरसक प्रयत्न करती है....फ़िर क्यूँ समझे उन्हें .पराई....?क्यों?..क्यों?...क्यों जनम से ही उन पर पराई का ठप्पा लगा दिया जता है.....क्यों उन्हें बार बार लड़की होने का एहसास दिलाया जाता है..!क्या किरण बेदी,कल्पना चावला,इंदिरा गांधी या..लक्ष्मी बाई.के लड़की होने का हमे अफ़सोस है?????यदि नहीं तो फ़िर अपने घर में लड़की होने पर थाली क्यों न बजाये....!क्यों न हम उन्हें वे सब सुविधाएँ देन जो लड़कों को देते है क्यूंकि एक लड़की ही तो किसी की माँ,बहिन,भांजी,भतीजी,भाभी या फ़िर प्रेमिका बनेगी ...क्या इन रिश्तों के बिना जीना .सम्भव है...?फ़िर क्यूँ समझे इन्हे पराई..... !